हरी खाद
उत्तरी भारत में हरी खाद के लिए ढैंचा सर्वाधिक लोकप्रिय एवं उत्तम दलहनी फसल है। यह फसल मिट्टी और जलवायु की विभिन्न परिस्थितियों के लिए अनुकूल है। इसे सूखा, जलभराव, लवणता आदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उगाया जा सकता है। इस फसल की दो प्रजातियां सैसबेनिया एक्यूलेटा एवं सैसबेनिया रोस्ट्रेटा अपने शीघ्र खनिजकरण, उच्च नाइट्रोजन मात्रा तथा अल्प समय में वृद्धि के कारण बाद में बोई गई मुख्य फसल की उत्पादकता पर अच्छा प्रभाव डालती है। इनमें से सैसबेनिया एक्यूलेटा प्रजाति के पौधे आकार में सीधे व लम्बे एवं सूखे के प्रति सहनशील होते है। ढैंचा की फसल की अवधि लगभग 45-60 दिनों की होती है इसलिए इसे विभिन्न फसल प्रणालियों में जायद व खरीफ दोनों मौसमों में उगाया जा सकता है।
भूमि: ढैंचा के लिए अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मृदायें एवं लवणीय और क्षारीय मृदायें उपयुक्त रहती हैं।
किस्में: ढैंचा की प्रमुख उन्नत प्रचलित किस्में सेस पी.डी.सी. एस. आर-1, सेस पंत-1, सेस एच-1, सेस एन.बी.पी.जी., आर-1 है।
बीज एवं बुवाई: हरी खाद के लिए ढैंचा का बीज 40-45 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से बोना चाहिए। खरीफ में बुवाई वर्षा प्रारम्भ होने के तुरन्त बाद कर देनी चाहिये तथा यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो हरी खाद की बुवाई वर्षा शुरू होने के पूर्व भी की जा सकती है।
उर्वरक: पौधों की वृद्धि की प्रारम्भिक दशाओं में वायुमण्डलीय नाइट्रोजन यौगिकरण जीवाणु सक्रिय नहीं होता अत: इसके लिए 25-30 कि.ग्रा. नाइट्रोजन व फसल की शीघ्र बढ़वार एवं आगे की फसल की उपज को बढ़ाने हेतु 40-50 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर बुवाई के समय दें। इससे फसल की बढ़वार अच्छी होगी और साथ ही जड़ो पर अधिक ग्रथिया(गांठें) बनेंगी जिससे वायुमण्डीय नाइट्रोजन अधिक मात्रा में संश्लेषित होगी।
सिंचाई: ग्रीष्मकालीन फसल के लिए पलेवा सहित 2-3 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। जरूरत पडऩे पर 10 से 15 दिन के अंतराल में हल्की सिंचाई कर दें। खरीफ में वर्षा की मात्रा के अनुसार 1-2 सिंचाई पर्याप्त है।
हरी खाद की पलटाई:
हरी खाद के लिये बोई ढैंचा की फसल 40 से 45 दिन बाद मिट्टी में मिलाने के लिए तैयार हो जाती है। हरी खाद की फसल को पलटने के लिये पुरानी पद्धति से खड़ी फसल में पाटा चलाकर फिर मिट्टी पलटने वाले हल से फसल को मिट्टी में दबा दिया जाता है। परन्तु अब रोटावेटर की उपलब्धता व प्रयोग से यह कार्य अधिक बेहतर तरीके से किया जा सकता है क्योंकि इसमें फसल को सीधे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर मिट्टी में मिलाने की प्रक्रिया एक बार में ही पूर्ण कर दी जाती है जिससे समय की बचत के साथ हरे पदार्थ का सडाव जल्दी होता है ।
हरी खाद के लाभ:
वर्तमान समय में खेती में रसायनिक उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग एवं सीमित उपलब्धता को देखते हुए पोषक तत्वों के अन्य विकल्प भी उपयोग में लाना आवश्यक हो गया है और तभी हम खेती की लागत को कम कर फसलों की प्रति एकड़ उपज को बढ़ाने के साथ ही मिट्टी की उर्वराशक्ति को भी अगली पीढ़ी के लिये बरकरार रख सकेंगे। रसायनिक उर्वरकों के पर्याय रूप में मिट्टी उपजाऊ शक्ति को बनाये रखने के लिए हरी खाद एक सस्ता व सरल विकल्प है। |
हरी खाद प्रयोग हेतु सावधानियां
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