Integrated weed management in Rabi crops
देश खाद्यानों के लिए एवं कई औद्योगिक इकाईयाँ कच्चे माल के लिए कृषि पर निर्भर हैं। इसलिए खाधान्न उत्पादन में वृद्धि करना अतिआवश्यक हैं। खरपतवार, कीट एवं व्याधियों से हमारी फसलों को लगभग 1 लाख करोड़ रूपये की हानि प्रति वर्ष होती है परन्तु सर्वाधिक हानि खरपतवारों की उपस्थिति के कारण होती है।
खरपतवार फसलों के साथ पोषक तत्व, जल, प्रकाश एवं स्थान आदि के लिए प्रतिस्पर्धा करते है, साथ ही साथ ये फसलों के लिए हानिकारक रोग व कीटों को शरण देकर भी क्षति पहुंचाते हैं जिससे फसलों की उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
खरपतवारों के कारण उत्पादकता में कमी के साथ-साथ फसल उत्पादों की गुणवत्ता में भी कमी आती है जिससे किसानों को उसके उत्पाद का सही बाजार मूल्य नहीं मिलता है अतः कृषकों को फसलों से भरपूर उपज लेने हेतु उन्नत बीज, संतुलित उर्वरक एवं सिंचाई प्रबन्धन के साथ ही खरपतवारों का सही समय पर नियंत्रण करना भी अतिआवश्यक है।
विभिन्न फसलों की पैदावार में खरपतवारों द्वारा 5 से 85 प्रतिशत तक की कमी हो जाती है। खरपतवारों से परोक्ष रूप से भी बहुत सी हानियां होती है जैसे फसलों के बीजों में गुणवत्ता में कमी, फसलों में रोग कीटों को शरण देना, दुधारू पशुओं से प्राप्त होने वाले खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता में कमी होना, फसल उत्पादन लागत मूल्यों में वृद्धि आदि।
उन्नत किस्म के बीज, उपयुक्त उर्वरक, सिंचाई एवं फसल सुरक्षा के उपाय जैसे आधुनिक तरीकों को अपनाकर भी कृषक फसलों की भरपूर पैदावार नहीं ले पाते हैं जिसका मुख्य कारण है खरपतवारों का सही समय पर एवं उचित विधि द्वारा नियंत्रण नहीं कर पाना। अतः विभिन्न विधियों द्वारा खरपतवारों को नियंत्रण कर फसलों की अधिक उपज एवं लाभ लिया जा सकता है। खरपतवारों द्वारा होने वाली हानियों का वर्णन निम्न प्रकार है।
नमी पर प्रभाव :
फसलों के पौधों की भांति खरपतवारों के पौधे भी मृदा से नमी का उपयोग करते हैं। कभी-कभी खरपतवारों की जल मांग मुख्य फसल की जल मांग से भी अधिक होती है।
मृदा में पोषक तत्वों पर प्रभाव :
मृदा में विभिन्न पोषक तत्व जो फसल के लिये उपयोगी हाते हैं खरपतवारां द्वारा आसैतन 7-20 प्रतिशत तक गह्रण कर लिये जाते हैं विभिन्न अनुसन्धान परिणामों के अनसुर खरपतवार 22-162 किलोग्राम नत्रजन, 3-24 किलोग्राम फास्फोरस एवं 21-203 किलोग्राम पोटाश प्रित हेक्टेयर तक अवशोषित कर लेते हैं । विभिन्न रबी खरपतवारों के पौधे में शुष्क भार के आधार पर 1.01-3.16 प्रतिशत नत्रजन, 0.06-1.63 प्रतिशत फास्फोरस एवं 1.32-4.51 प्रतिशत पोटाश की मात्रा पायी जाती है।
फसलों की उपज पर प्रभाव :
विभिन्न फसलों में खरपतवारों के द्वारा 10-80 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आ जाती है। विभिन्न फसलों के दानों में तेल एवं प्रोटीन प्रतिशत में कमी हो जाती है। गन्ने के पौधे में चीनी की मात्रा कम हो जाती है एवं सब्जियों के गुणों पर भी कुप्रभाव होता है। चारे की फसल के गुण भी नष्ट हो जाते हैं। इन सभी कारणों से फसलों की कीमत गिर जाती है।
रोग एवं कीटों को आश्रय :
खरपतवार, फसल के पौधों पर आक्रमण करने वाले विभिन्न कीट पतंगों व बीमारियों के जीवाणुओं को शरण देकर फसलों को हानि पहुंचाते हैं। गेहूँ, जौ व जई पर लगने वाली तने की रोली नामक बीमारी के रोगाणु जंगली जई पर शरण लेते हैं।
कृषि यन्त्रों एवं मशीनों पर प्रभाव :
जिन खेतों में खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता है उनकों नष्ट करने के लिये बार-बार जुताई व गुड़ाई करनी पड़ती है, जिसके कारण कृषि यन्त्र व मशीनों में घिसावट होती है।
भूमि की उत्पादकता पर प्रभाव :
मृदा से खरपतवार पोषक तत्वों का हास्र करके मृदा उत्पादकता को प्रभावित करते हैं। कुछ खरपतवार मृदा में अपनी जड़ों द्वारा विषलै पदार्थ छोडते हैं, जो आगामी फसलों के लिये बहुत हानिकारक हाते हैं ।
सारणी-1 : रबी फसलों में पाये जाने वाले मुख्य खरपतवार।
फसल | मुख्य खरपतवार |
गेहूँ एवं जौ | मंड़ूसी या गेहूँसा, बथुआ, कृष्णनील, चटरी-मटरी, गेगला, मुनमुना, हिरनखुरी, सैंजी, प्याजी, कंटीली, जंगली जई, मोथा व दूब घास |
चना, मटर एवं मसूर | बथुआ, कृष्णनील, चटरी-मटरी, गेगला, हिरनखुरी, गजरी, सैंजी, प्याजी, कंटीली, मोथा व दूब घास |
सरसों | ओरोबंकी (भुई फोड़), प्याजी, सैंजी, हिरनखुरी, मोथा व दूब |
सारणी 2 : रबी फसलों के मुख्य खरपतवार एवं उनकी पहचान
खरपतवार का नाम | पहचान |
गेहूँ का मामा/गुल्लीडंडा/ गेहुँसा/मंडूसी | गेहूँ व जौ की फसल के पौधों से मिलता- जुलता खरपतवार है। इसके नीचे की गांठे हल्की लाल रंग की होती है। बालियां 3-6 से.मी. लम्बी, बीज काले व अण्डाकार तथा प्रसारण बीज द्वारा। |
बथुआ | एक वर्षीय, चौड़ी पत्ती, 2-3 सें.मी. आकार की चिकनी पत्तियां । फूल व फल जनवरी में तथा बीजों द्वारा प्रसारण। |
खरबाथु | वार्षिक, पत्तियां अधिक चौड़ी, बथुआ से लम्बे पौधे, पुश्प हरे गुच्छों में लगते हैं तथा प्रसारण बीज द्वारा। |
जंगली जई | एक वर्षीय, संकरी पत्ती, औसतन 6000 बीज प्रति पौधा, गेहूँ, जौ, जई से मिलता जुलता खरपतवार। |
हिरणखुरी | पूरे वर्ष रहने वाला बहुवर्षीय, पत्तियाँ हिरण के खुर के समान बेल के रूप में, जड़s अधिक गहरी होती है। अन्य फसलों के तनों से लिपटा रहता है। प्रसारण बीज व जड़ द्वारा। |
कृष्णनील | चौड़ी पत्ती वालेड़ थोड़ा फैलने वाले शाकीय तने, छोटे चमकीले नीले फूल, प्रसारण बीज द्वारा। |
सत्यानाशी | चौड़ी पत्ती वाले, पौधें की ऊँचाई 60 से 90 सें.मी. फूलों व फलों पर कांटे, तने से पीला रस निकलता है। बीज देखने में सरसों जैसा व प्रसारण बीज द्वारा। |
प्याजी | एक वर्षीय, संकरी पत्तियां प्याज के जैसी, जड़ें पतली व रेशेदार। |
मोथा | संकरी पत्ती वाला, बहुवर्षीय खरपतवार है तने के नीचे जडों में गाँठ होती है काटने पर बार-बार उग जाता है। |
चटरी-मटरी | तना कमजोर, आधार से टेड्रिल्स निकलते है जिनके सहारे यह अन्य पौधों के तनों से लिपट्कर ऊपर चढ़ता है । फूल पीले रंग के व प्रसारण बीज द्वारा। |
जंगली पालक | काफी चौड़ी पालक जैसी पत्तियां होती हैं। |
कटैली | बहुवर्षीय, पत्तियों पर नुकेले कांटे, किनारे कटे फटे, गुलाबी-बैगनी फूल। |
पीली सैंजी | एक वर्षीय, चौड़ी पत्ती, फूल पीले रंग के, प्रजनन बीज द्वारा, चारे में उपयोगी। |
खरपतवारों का नियंत्रण
प्रायः यह देखा गया है कि कीट व व्याधि लगने पर उनके निदान के लिये किसान तुरंत ध्यान देते हैं लेकिन खरपतवारों की ओर ध्यान नहीं देते हैं और उनकों जब तक बढ़ने देते हैं जब तक कि ये हाथ से पकड़कर उखाड़ने योग्य न हो जायें। कभी-कभी तो किसान खरपतवारों को पशुओं के चारे के रूप में उपयोग करते हैं, तब तक खरपतवार फसल को नुकसान कर चुके होते हैं। फसलों की प्रारंभिक अवस्थाएं खरपतवारों के प्रति अधिक संवेदनशील होती है जिस अवस्था में यह प्रतिस्पर्धा सर्वाधिक होती है उसे “क्रान्तिक अवस्था” कहते हैं। यदि इस अवस्था पर खरपतवारों का नियंत्रण नहीं किया गया तो उसकी क्षति पूर्ति बाद में नहीं की जा सकती है। प्रमुख रबी फसलों में खरपतवारों की क्रान्तिक अवस्था सारणी 3 में दी गई है ।
सारणी 3 : विभिन्न रबी फसलों में फसल-खरपतवार प्रतिस्पर्धा का क्रान्तिक समय
फसल | क्रान्तिक समय (बुआई के बाद दिन) |
गेहूँ | 30-45 |
जौ | 15-45 |
चना | 30-60 |
मटर | 30-45 |
मसूर | 30-60 |
सरसों | 15-40 |
खरपतवार नियंत्रण की निरोधक विधि
इस विधि में वे क्रियायें शामिल की गई हैं जिनके द्वारा खेत में खरपतवारों को फैलने से रोका जा सकता है जो इस प्रकार हैं
खरपतवार नियंत्रण की यांत्रिक विधियां
यह विधि खरपतवारों की रोकथाम की सबसे पुरानी प्रचलित, सरल व प्रभावी विधि है। इस विधि में खरपतवारों की रोकथाम हेतु विभिन्न यंत्रों व मशीनों का प्रयोग किया जाता है। यांत्रिक विधि के अन्तर्गत निम्न क्रियाऐं अपनायी जाती है।
भू परिष्करण : भू परिष्करण में वे सभी कर्षण क्रियाऐं शामिल होती हैं जो कि फसल के विकास व वृद्धि के लिये आवश्यक है। यह विधि खरपतवारों की रोकथाम में बहुत ही सहायक है। खेतों में समय पर कर्षण कार्य जैसे जुताई एवं गुड़ाई करने से खरपतवार उखड़कर या़ टूटकर नष्ट हो जाते हैं।
इस विधि के द्वारा वार्षिक तथा बहुवर्षीय खरपतवारों को नष्ट किया जा सकता है अतः खरपतवारों पर प्रभावी रोकथाम हेतु समय पर जुताई व अन्य भूपरिष्करण करते रहना चाहिये। समय पर जुताई करने से खरपतवारों के बीजों का अंकुरण प्रभावित होता है क्योंकि कुछ बीज अधिक गहराई पर चले जाने पर अंकुरण के पश्चात् मर जाते हैं तथा कुछ बीज सूखी मिट्टी में बाहर आ जाते हैं जिससे पर्याप्त नमी न मिलने पर अंकुरण नहीं होता है।
निराई-गुड़ाई : यह खरपतवार नियंत्रण की सर्वोत्तम विधि है। फसलों की प्रारंभिक अवस्था में बुवाई के 15-35 दिन के मध्य का समय खरपतवारों से प्रतियोगिता की दृष्टि से क्रांतिक समय है परिणामस्वरूप, प्रारंभिक अवस्था में ही फसलों को खरपतवारों से मुक्त करना लाभदायक होता है।
बुवाई के 15-35 दिन के मघ्य फसल की क्रांतिक अवस्था के अनुसार खुरपी या कुदाली द्वारा निराई-गुड़ाई करके खरपतवार निकालना चाहिये। इस विधि से न केवल खरपतवार नष्ट होगें बल्कि मृदा के वायु संचार में भी वृद्धि होगी। इस विधि से कतारों में बोई गई फसलों के खरपतवारों को सफलतापूर्वक नष्ट किया जा सकता हैं।
हाथ द्वारा होइंग : इस विधि से खेतों में बड़े-बड़े आकार के खरपतवार नष्ट किये जाते हैं। हाथ द्वारा चलने वाले गुड़ाई के यंत्रों से खरपतवारों को काफी सीमा तक नियंत्रित किया जाता है। यह विधि कतारों में बोई गई फसलों में अधिक कारगर रहती हैं। फसल बोने के 15-35 दिन के मध्य दो कतारों के बीच हैंण्ड हो, व्हील हो, डोरा व द्वि व्हील चलाना चाहिये।
खरपतवार नियंत्रण की शस्य विधियां
खेतों की ग्रीष्मकालीन जुताई : इस विधि में सर्वप्रथम हल्की मिट्टी में डिस्क प्लाऊ तथा मध्यम से भारी मिट्टी में एम.बी. प्लाऊ से गर्मियों में खेतों की गहरी जुताई कर खुला छोड़ देते हैं। गर्मियों में अधिक गर्मी से मृदा के तापमान में वृद्धि होती है
जिससे कई खरपतवार जलकर नष्ट हो जाते हैं तथा उनके बीजों की अंकुरण क्षमता नष्ट हो जाती है और आगामी फसलों में खरपतवार नहीं उगते हैं। कुछ नकारा खरपतवारों जैसे दूबघास, मोथा व कांस आदि की जड़ें व वानस्पतिक भाग खेतों की गहरी जुताई करने से उखड़ कर नष्ट हो जाते हैं ।
समय पर कर्षण क्रियाएँ : उपयुक्त समय पर जुताई करने से भी खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है। जैसे फसल कटने के तुरंत बाद गहरी जुताई कर देना चाहिये। इस विधि से काफी सख्यां में खरपतवारों की रोकथाम की जा सकती है।
बुवाई की विधि : बुवाई हमेशा कतारों में करना चाहिये ताकि दो कतारों के बीच में निराई-गुड़ाई व अन्य कर्षण क्रियाऐं करने में आसानी रहे और खरपतवारों का प्रभावी ढंग से नियंत्रण किया जा सके।
उपयुक्त विधि से बुवाई करने पर पौध संख्या पर्याप्त रहती है तथा पौधे प्रारम्भ से ही ठीक से वृद्धि करने लगते हैं और उनमें खरपतवारों से प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता बढ़ती है। गेहूँ में आड़ी तिरछी विधि (क्रिस-क्रॉस बुवाई) बुआई करने पर खरपतवारों का प्रभाव कम होता है।
बुवाई का समय : फसल को ऐसे समय पर बुवाई की जाये कि खरपतवारों के निकलने से पहले ही खेत को ढक ले या खरपतवारों को एक बार पहले उगने देवे, फिर जुताई कर नष्ट करने बाद फसल की बुवाई थोड़ी देर बाद करें।
अतः परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त बुवाई के समय में हेर-फेर करने से खरपतवारों से होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है। इससे खरपतवार प्रतिस्पर्धा नहीं कर पायेंगे तथा फसल सरलता से बढ़कर बाद में उगने वाले खरपतवार को हानिकारक नहीं होने देती है।
उपयुक्त बीज दर व दूरी : बीज दर व दूरी का खरपतवारों की वृद्धि पर बहुत असर पड़ता है। कतारों की दूरी कम होने पर फसल छायादार रहेगी जिसके कारण प्रकाश तथा वायु भूमि पर नहीं पहुंचेगा और खरपतवार प्रकाश की अनुपस्थिति में वृद्धि नहीं कर पाते हैं।
इसी प्रकार यदि बीज की मात्रा बढ़ा दी जाये तो पौधों की आपस की दूरी कम हो जायेगी और खरपतवारों को प्रकाश व वायु नहीं मिल पायेगी जिससे खरपतवारों की वृद्धि कम होगी।
गेहूँ की कतारों की दूरी 15 से.मी. दूरी करने से खरपतवारों की वृद्धि पर विपरीत असर पड़ता है। गेहूँ में बीज की मात्रा 125 किग्रा प्रति हैक्टर करने पर खरपतवारों के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
उपयुक्त फसल-चक्र : उपयुक्त फसल-चक्र अपनाना ही खरपतवार नियंत्रण की एक आधारभूत विधि है। फसल-चक्र में फसलों को बदल-बदल कर लेने से खरपतवारों की वृद्धि व प्रजनन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। फसल-चक्र में दलहनी फसलें जैसे चना, मसूर एवं मटर आदि शामिल करने से खरपतवारों पर प्रभाव तो कम होगा साथ ही भू-क्षरण भी बचेगा और मृदा उर्वरकता बढ़ेगी।
एक ही फसल को बार-बार खेत में लेने से उस फसल के खरपतवारों का प्रकोप बढ़ जाता है। जैसे एक ही खेत में बार-बार गेहूँ की फसल लेने से बथुआ व गेहूँ का मामा का प्रकोप बढ़ जाता है, जिसके परिणामस्वरूप कुछ समय बाद इनकी संख्या इतनी बढ़ जाती है कि उस खेत में गेहूँ की फसल लेना आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं रहता है।
अतः ऐसे खेत में विपरीत स्वभाव वाली फसल उगाने से वह खरपतवार कम होते हैं। जैसे-जिस खेत में गेहूँ का मामा (फेलिरस माइनर) तथा जंगली जई (ऐवेना फटूवा) अधिक हो तो उस खेत में बरसीम या सरसों लगाने से लाभ होता है।
उपयुक्त उर्वरक प्रबंधन : खरपतवार फसलों में दिये गये पोषक तत्वों के लिये प्रतिस्पर्धा करते हैं। यदि उर्वरक उचित समय व विधि से नहीं दिये जाते हैं तो उर्वरको का अधिकतम हिस्सा खरपतवार ग्रहण कर लेते हैं और इस स्थिति में अधिक वृद्धि कर फसल को हानि पहुंचाते हैं अतः उर्वरक छिटकवा विधि की अपेक्षा कूंड में बीज के नीचे देना उचित रहता है।
यदि उपयुक्त विधि से उर्वरक दिया गया हो तो फसल के पौधे प्रारम्भिक लाभ उठा लेते हैं तथा उर्वरकों के कारण पौधों में वानस्पतिक वृद्धि अधिक होने लगती है और बाद में उगने वाले खरपतवार दब जाते हैं।
उपयुक्त सिंचाई व्यवस्था: उपयुक्त सिंचाई व्यवस्था खरपतवारों की रोकथाम में सहायक हो सकती है। यदि खरपतवारों को पर्याप्त नमी मिलती है तो यह वृद्धि कर फसल से अधिक प्रतियोगिता करते हैं। सिंचाई विधियां भी खरपतवारों की सघनता को प्रभावित करती है।
बूंद-बूंद सिंचाई विधि से सिंचाई करने पर थाला विधि की अपेक्षा खरपतवारों की रोकथाम ज्यादा अच्छी होती है क्योंकि बूंद-बूंद सिंचाई से पानी पौधे की जड़ों के पास दिया जाता है और बाकी का खेत सूखा रहता है इस तरह से खरपतवार बिना नमी के पनप नहीं पाते हैं।
खरपतवार नियंत्रण की रासायनिक विधियां
यदि यांत्रिक एवं सस्य क्रियाओं द्वारा प्रतिकूल मौसम परिस्थितियों जैसे लगातार वर्षा होने या समय पर मजदूरों के न मिलने के कारण अधिक क्षेत्रों में श्रमिकों द्वारा खरपतवार निकालना संभव नहीं होता है ऐसी परिस्थितियों में रासायनिक विधि ही कारगर है।
खरपतवारनाशकों द्वारा खरपतवारों के नियंत्रण में कम लागत, समय की बचत तथा अधिक क्षेत्र में आसानी से नियंत्रण संभव हो जाता है। खरपतवारनाशी दवायें खरपतवारों को उगते ही शीघ्र नष्ट कर देती हैं जिससे उनकी पुनः वृद्धि एवं फूल व बीज नहीं बनने से प्रसारण नहीं हो पाता है जिससे अगले वर्ष फसलों में खरपतवारों का प्रकोप काफी कम हो जाता है।
खरपतवारनाशी रासायनों का प्रयोग करते समय ध्यान रखना चाहिए कि सिफारिशनुसार उचित मात्रा में, सही विधि एवं उपयुक्त समय पर प्रयोग करें अन्यथा गलत तरीके से प्रयोग करने पर फसलों को नुकसान हो सकता है । विभिन्न फसलों में खरपतवार नियंत्रण हेतु अलग-अलग खरपतवारनाशक दवाओं की सिफारिश दी गयी हैं। उपरोक्त खरपतवारनाशक दवाओं को मुख्यतयाः तीन वर्गों में विभक्त किया गया है तथा उनकी मात्रा व उपयोग सम्बन्धी विवरण सारणी 8-13 में विस्तृत रुप से दी गई है।
बुवाई से पूर्व प्रयुक्त खरपतवारनाशी
इस प्रकार के खरपतवारनाशी बुवाई से पूर्व खेत की अंतिम जुताई के समय छिड़काव कर भूमि में मिला दिये जाते हैं जो कि खरपतवारों के बीजों को उगने से रोकते हैं या कुछ उग भी जाते हैं तो शीघ्र नष्ट हो जाते हैं । इनका प्रयोग नैपसेक स्प्रेयर, पावर स्प्रेयर एवं ट्रैक्टर माउन्टेड स्प्रेयर से भी किया जा सकता है।
ध्यान रहे कि ये ज्यादातर उड़नशील प्रकृति के होते हैं अतः इन्हें छिड़काव के साथ ही या तुरन्त पश्चात् भिम में जुताई द्वारा अच्छी तरह मिलाना अति आवश्यक है अन्यथा इनका प्रभाव कम हो जाता है। जैसेः फ्लूक्लोरेलीन व ट्राईफ्लूरेलीन इत्यादि।
अकुंरण पूर्व एवं बुवाई के तुरन्त बाद प्रयुक्त खरपतवारनाशी
इस प्रकार के खरपतवारनाशी बुवाई के तुरन्त बाद (24-36 घण्टे तक) एवं अंकुरण से पूर्व प्रयोग में लिए जाते हैं। चूंकि खरपतवार फसल से पहले उग आते हैं अतः यह उगते हुए या उगे हुए खरपतवारों को नष्ट कर देते हैं तथा अन्य खरपतवारों को उगने से रोकते हैं।
इन खरपतवारनाशकों के प्रयोग के समय भूमि में नमी होना अतिआवश्यक है जिससे इनकी क्रियाशीलता बढ़ जाती है। यह चयनित प्रकार के होते हैं अतः फसल को नुकसान नहीं पहुँचाते हैं। जैसेः पेन्डीमेथालीन, एलाक्लोर व एट्राजीन इत्यादि ।
अंकुरण पश्चात् खड़ी फसल में प्रयुक्त खरपतवारनाशी
इस प्रकार के खरपतवारनाशी फसल उगने के पश्चात् खड़ी फसल में छिड़के जाते हैं। यह चुनिंदा प्रकार के होते हैं जो खरपतवारों को विभिन्न रासायनिक क्रियाओं द्वारा नष्ट करते हैं तथा फसल को नुकसान नहीं पहुँचाते हैं। कई बार लगातार बुवाई की प्राथमिकता होने या लगातार बारिश होने या किन्ही अन्य कारणों से बुवाई पूर्व या अंकुरण पूर्व खरपतवारनाशकों का प्रयोग नहीं किया जा सके तो बुवाई पश्चात खड़ी फसलों में खरपतवारनाशकों का प्रयोग कर सकते हैं।
चूंकि यह खरपतवारनाशक खड़ी फसल में प्रयुक्त होते हैं अतः इनके प्रयेग में कुछ विशेष सावधानियाँ रखनी चाहिए जैसे विशिष्ट खरपतवारों के लिए सिफारिशनुसार उचित खरपतवारनाशक की सही मात्रा, सही समय पर एवं सही विधि द्वारा छिड़काव करें अन्यथा फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
खड़ी फसल में खरपतवारनाशकों का प्रयोग करते समय चिपकने वाला पदार्थ (सरफेक्टेन्ट) जैसे-साबुन, शैम्पू, सेन्डोवीट या धानुवीट आदि का 0.5 प्रतिशत (500 मिलीलीटर प्रति हैक्टर) को मिलाकर छिड़काव करने से खरपतवारों की सम्पूर्ण पत्तियों पर फैलकर चिपक जाते हैं एवं उनकी क्रियाशीलता को बढ़ाते हैं। इस प्रकार खरपतवारनाशकों के साथ “सरफेक्टेंट’’ मिलाकर छिड़काव करने से खरपतवारों का अच्छा नियंत्रण होता है।
यह ध्यान रखें कि स्प्रेयर की टंकी में पहले खरपतवानाशक मिलायें तथा बाद में सरफेक्टेंट को डाल कर छिड़काव करें। जैसेः 2,4-डी, मेटसल्फूरोन मिथाइल, सल्फोसल्फ्यूरान, क्यूजालोफोप इथाईल, क्लोडीनोफोप व इमाजिथापायर इत्यादि फसल विशेष खरपतवारनाशक हैं ।
खरपतवारनाशी की मात्रा कैसे ज्ञात करें
कई बार कृषकों को खरपतवारनाशकों की सही मात्रा ज्ञात करने में परेशानी होती है अतः स्वयं किसान भी सूत्र के द्वारा सही मात्रा ज्ञात कर सकते हैं। खरपतवारनाशक के डिब्बे पर उसकी सान्द्रता (प्रतिशत) ई.सी., डब्ल्यू.पी.,जी.एस.पी., डब्ल्यू.एस.पी., एल. या एस.एल. के रूप में लिखी रहती है। इनकी सान्द्रता को ध्यान में रखकर निम्नलिखित सूत्र द्भारा सही मात्रा की गणना की जा सकती है।
खरपतवारनाशक के प्रयुक्त किये जाने वाले दवा की मात्रा
खरपतवारनाशक की व्यापारिक मात्रा (किग्रा. या लीटर प्रति है.)
= सक्रिय तत्व कि.ग्रा. प्रति है./खरपतवारनाशक की सान्द्रता (प्रतिशत) ×100
उदाहरण- गेहूँ की फसल में चौड़ी पत्ती कुल के खरपतवारों के नियत्रंण हेतु मेटसल्फूरॉन 20 प्रतिशत ड़ब्ल्यू पी नामक खरपतवारनाशक की 4 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर की दर से कितनी व्यापारिक मात्रा की जरूरत पड़ेगी।
4/20x100= 20 ग्रा. प्रति है.
छिड़काव से संबंधित सावधानियाँ
खरपतवारनाशी आधुनिक कृषि विज्ञान की परम आवश्यकता है लेकिन वे एक प्रकार के जहर हैं अतः इनके प्रयोग में विशेष सावधानी रखनी चाहिए। जिस प्रकार यह खरपतवारों व अन्य जीवों के लिए घातक है उसी प्रकार मानव शरीर पर भी इनका कुप्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार ये रसायन जो कृषि के लिए वरदान सिद्ध हो रहे हैं, असावधानी और अज्ञानतापूर्वक प्रयोग करने पर प्राणघातक भी सिद्ध हो सकते हैं। अतः खरपतवार-नाशकों के छिड़काव में कतिपय सावधानियों की आवश्यकता होती है साथ ही उचित प्रकार के छिड़काव यंत्र काम में लेने से इनका प्रयोग अधिक प्रभावी व सुगमता से किया जा सकता है। जिससे खरपतवारनाशी रसायनों की कम मात्रा भी अधिक प्रभावी होती है ।
फसल | खरपतवार नाशी | सक्रिय तत्व मात्रा (ग्राम/है.) | व्यापारिक उत्पाद मात्रा (ग्राम/है.) | प्रयोग का समय
| खरपतवारों का नियंत्रण |
गेहूँ
| पेन्डीमेथालीन (30 ई. सी.) | 1000 | 3325 | अंकुरण से पूर्व | घास एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार |
मेटसल्फूरोन मिथाइल (20 प्रतिशत डब्ल्यूपी.) | 4-6 | 20-30 | बुआई के 30-35 दिन बाद | सिरसियंम आरवेन्स और रुमेक्स सहित केवल चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार | |
मैट्रीब्यूजिन (70 प्रतिशत डब्ल्यू. पी.) | 150-200 | 210-280 | बुआई के 30-35 दिन बाद | सभी प्रकार के (संकरी व चौड़ी पत्ती वाले) खरपतवार | |
सल्फोसल्फ्यूरान (75प्रतिशत डब्ल्यू. पी.) | 25 | 33 | बुआई के 30-35 दिन बाद | संकरी पत्ती (जंगली जई, गुल्ली डंडा) तथा अन्य चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार | |
फिनोक्साप्रोप इथाईल (10 ई.सी.) | 100-120 | 1000-1200 | बुआई के 30-35 दिन बाद | घास कुल विशेषकर जंगली जई | |
क्लोडीनाफॉप | 60 | 400 | बुवाई के 30-35 दिन बाद | सभी खरपतवारों का नाश करती है। | |
चना, मसूर, मटर
| फ्लूक्लोरेलिन | 1000 | 2200 | बोने से पहले खेत की अन्तिम जुताई के समय छिड़ककर भूमि में अच्छी तरह से मिला दें। | सभी खरपतवारों का नाश करती है। |
पेन्डीमेथालीन (30 ई. सी.) | 1000 | 3325 | अंकुरण से पूर्व बुवाई के 1-2 दिन बाद | सैaजि व गाजर घास के अलावा सभी खरपतवारों का नाश करती है। | |
रेपसीड और सरसो
| फ्लूक्लोरेलिन | 1000 | 2200 | बोने से पहले खेत की अन्तिम जुताई के समय छिड़ककर भूमि में अच्छी तरह से मिला दें। | सभी खरपतवारों का नाश करती है। |
पेन्डीमेथालीन (30 ई. सी.) | 1000 | 3325 | अंकुरण से पूर्व बुवाई के 1-2 दिन बाद | सैaजि व गाजर घास के अलावा सभी खरपतवारों का नाश करती है। | |
जौ
| 2-4 डी ई.ई. (34 प्रतिशत डी.सी.) | 500 | 1470 | बुआई के 30-35 दिन के बाद | चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार |
आइसोप्रोट्यूरॉन (50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी) | 750-1250 | 1500-2500 | बुआई के 30-35 दिन के बाद | संकरी पत्ती वाले खरपतवार (जंगली जई, गुल्ली डंडा) |
यह देखा गया है कि कुछ खरपतवारनाशी रसायन बुवाई से पहले छिड़ककर मृदा में मिला देने से और बुवाई के 20-30 दिन बाद एक बार निराई करने से खरपतवारों से छुटकारा मिलता है। रबी की फसलों में एक बार खरपतवारनाशी दवाई का छिड़काव और एक निराई ही वार्षिक खरपतवारों की रोकथाम के लिए काफी है। खरपतवारनाशी दवाईयों से खरपतवारों की रोकथाम आर्थिक दृष्टि से सस्ती, आसान व बेहतर है।
छिड़काव यंत्रों के प्रयोग में सावधानियाँ
छिड़काव यंत्र के उचित प्रयोग एवं सावधानी के अभाव में मनुष्य के स्वास्थ्य पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है अतः फसलों में खरपतवारनाशियों के छिड़काव के लिए उपयोगी यंत्रों का चयन, रखरखाव तथा सावधानियाँ अत्यंत आवश्यक है। छिड़काव से पहले, छिड़काव के समय व छिड़काव के बाद भी कई प्रकार की सावधानियों की आवश्यकता होती है।
प्रयोग के दौरान सावधानियाँ